“बनाकर दीये मिट्टी के, जरा सी आस पाली है… मेरी मेहनत खरीदो लोगों, मेरे घर भी दीवाली है”
बनाकर दीये मिट्टी के, जरा सी आस पाली है… मेरी मेहनत खरीदो लोगों, मेरे घर भी दीवाली है। किसी शायर की लिखी ये कविता कुम्हारों के हालात को बाखूबी बयां कर रही है। क्योंकि हमारी संस्कृति और परंपराओं पर आधुनिक जमाने की चकाचैंध भारी पड़ रही है। पहले के जमाने में जहां कारीगरों के मिटी के दियो को तरजीह दी …
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